दिसंबर 2019 में संसद में भीड़ द्वारा किसी की हत्या किए जाने के संदर्भ में पृथक कानून की मांग पर केंद्रीय गृह मंत्री ने जानकारी साझा की थी कि केंद्र सरकार ऐसे मामलों को लेकर भारतीय दंड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता में जरूरी बदलाव पर विचार कर रही है। इस सिलसिले में वर्ष 2020 में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा वैवाहिक दुष्कर्म, भीड़ के द्वारा की जाने वाली हिंसा, इच्छामृत्यु, यौन अपराधों और राजद्रोह जैसे कई गंभीर तथा संवेदनशील अपराधों की परिभाषा पर पुनर्विचार के लिए नेशनल ला यूनिवर्सिटी, दिल्ली के तत्कालीन कुलपति डा. रणवीर सिंह की अध्यक्षता में एक पांच सदस्यीय समिति का गठन किया था। इस समिति ने 49 तरह के अपराधों को पुनर्विचार के लिए चुना है।
अब इस सिलसिले में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा देश के प्रधान न्यायाधीश, हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों, राज्यों के मुख्यमंत्रियों, केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासकों, बार काउंसिलों और विधि विश्वविद्यालयों से अपने सुझाव आमंत्रित कर इस मामले में दिखाई गई प्रतिबद्धता स्वागत योग्य है। इस निर्णय का स्वागत इसलिए भी है कि देश में अपराधों की प्रकृति व स्थिति में परिवर्तन, संख्या में वृद्धि, अनावश्यक व अनुचित गिरफ्तारियां, आपराधिक मामलों के अत्यधिक लंबित होने, समन्वय की कमी, दोषसिद्धि की दर के अत्यधिक कम होने जैसे कारणों के चलते आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी। अच्छी बात है कि केंद्र सरकार कई अपराधों की परिभाषा को वर्तमान समय के हिसाब से बदलने की कोशिश में है। इससे न्याय प्रणाली के प्रति जनता के विश्वास में वृद्धि होगी।
हमारे देश की आपराधिक न्याय प्रणाली के सामने कई मुद्दे हैं, मसलन औपनिवेशिक युग के कानून, पुलिस सुधारों में देरी, अदालतों में बड़े पैमाने पर लंबित मामले। विडंबना है कि भारत में आपराधिक कानूनों का संहिताकरण ब्रिटिश शासन के दौरान किया गया था, जो आमतौर पर 21वीं सदी में भी वैसा ही बना हुआ है। ब्रिटिश शासन के दौरान आपराधिक कानूनी ढांचा भारत पर शासन करने के उद्देश्य से बनाया गया था, न कि नागरिकों की सेवा करने के लिए। आइपीसी यानी इंडियन पीनल कोड, सीआरपीसी यानी कोड आफ क्रिमिनल प्रोसीजर (भारतीय दंड संहिता) तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम के मौलिक सिद्धांत अभी भी ब्रिटिश साम्राज्य के शासन के अनुकूल ही दिखते हैं। वर्तमान में आइपीसी संविधान के बुनियादी मूल्य, जैसे स्वतंत्रता और समानता को सही मायनों में प्रतिबिंबित करने में असमर्थ दिखाई पड़ती हैं।
असल में हम जिसे भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली कहते हैं, उसमें बुनियादी तौर पर अदालत, पुलिस और जेल शामिल हैं, और आज यह प्रणाली गहरे संकट में है। देश में होने वाले तथा दर्ज किए गए अपराधों की कुल संख्या में बढ़ोतरी हुई है, जिनका भार न्याय प्रणाली पर पड़ रहा है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक हर साल होने वाली लगभग 60 प्रतिशत गिरफ्तारियां गैर-जरूरी और अनुचित होती हैं, जिसकी मुख्य वजह जमानती न्याय एवं कारावास संबंधी न्याय प्रणाली है। आपराधिक न्याय प्रणाली का उद्देश्य निर्दोषों के अधिकारों की रक्षा करना और दोषियों को दंडित करना था, किंतु आजकल यह प्रणाली आम लोगों के उत्पीडऩ का एक उपकरण बन गई है।
आज आलम यह है कि आपराधिक न्यायिक व्यवस्था आपराधिक मामलों के लंबित होने एवं दोषसिद्धि की दर बेहद कम होने जैसी समस्याओं का सामना कर रही है। भारत में हत्या, हत्या का प्रयास, दुष्कर्म या लूट सरीखे संगीन अपराधों में तीन में मात्र एक अभियुक्त को ही सजा मिलती है। दुष्कर्म में तो मात्र 25 प्रतिशत ही सजा पाते हैं और शेष हमारे समाज में उसी शान से जीवन व्यतीत करते हैं, जैसाकि वे पहले करते थे। गवाहों को पर्याप्त सुरक्षा नहीं मिल पाने का नतीजा है कि गवाहों की आगे आने की हिम्मत नहीं पड़ती या कई बार तो दुष्कर्म के बाद भी दबंगों के डर से पुलिस में रिपोर्ट नहीं लिखाई जाती। अगर मामला न्यायालय जाता भी है तो पुलिस सही साक्ष्य नहीं प्रस्तुत कर पाती है और इस प्रकार अपराधी समाज को ठेंगा दिखाकर फिर अपराध करने की हिम्मत पा जाता है। इससे न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता में कमी आती है।
यहां ध्यान दिलाना जरूरी है कि न्यायालयों द्वारा समलैंगिकता (धारा-377) को अपराध की श्रेणी से हटाने में 150 साल से ज्यादा लग गए। साथ ही आइपीसी में अब भी ऐसे प्रविधान मौजूद हैं, जो महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता जैसे मूल्यों को सीमित करते हैं। अगस्त 2018 में, भारत के विधि आयोग ने एक परामर्श पत्र प्रकाशित किया, जिसमें सिफारिश की गई थी कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए जो देशद्रोह से संबंधित है, उसपर पुनर्विचार करने या उसे निरस्त करने का समय है। निस्संदेह इस पर विचार करने की जरूरत है कि 1870 में बने जिस राजद्रोह कानून को बदलते समय के अनुरूप ब्रिटेन, अमेरिका सहित कई देशों ने कानून की किताबों से बाहर कर दिया है, आजाद भारत में इसे बनाए रखने का औचित्य क्या है! धारा 124 ए को ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीयों के विचारों के दमन के उद्देश्य से लाया गया था। ऐसे में देश की स्वतंत्रता के बाद से इसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। इसी प्रकार आइपीसी और सीआरपीसी के तहत सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध अपराधों के मामले में दिए गए अधिकारों को लेकर भी प्रश्न उठते रहे हैं। इसके अलावा आइपीसी के कई अध्यायों में दोहराव की स्थिति भी है। लोक सेवकों के खिलाफ अपराध, अधिकारियों की अवमानना और सार्वजनिक शांति जैसे अध्यायों को फिर से परिभाषित करने की जरूरत महसूस की जा रही है।
वर्तमान में तकनीकी और सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के साथ मानहानि जैसे मामलों में अपराध के दायरे और इसके प्रभाव पर अध्ययन की आवश्यकता है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 132 और 197 में वर्णित प्रविधानों के कारण अदालतों को अपने दायित्वों के निर्वहन में असफल रहने वाले अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई में दिक्कतें आती हैं। फलस्वरूप किसी पुलिस अधिकारी के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करना एक लंबी और बोझल प्रक्रिया बन जाती है। अत: इन कानूनों में उचित बदलाव किया जाना चाहिए।
कह सकते हैं कि आजादी के 75 वर्षों बाद भी भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली (सीजेएस) की पारदर्शिता और जवाबदेहिता को प्रभावी रूप से सुनिश्चित करना शेष है। वर्ष 2003 में भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत मलीमथ समिति ने कहा था कि मौजूदा प्रणाली अभियुक्तों के पक्ष में अधिक झुकी हुई है और इसमें अपराध पीडि़तों के लिए न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। इस समिति ने भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार के लिए विभिन्न सिफारिशें की हैं, किंतु इन्हें लागू नहीं किया गया। यह समिति सीजेएस कानून लागू करने, न्यायिक निर्णय लेने एवं आपराधिक आचरण सुधारने से जुड़ी सरकार की एजेंसियों को संदर्भित करती है। इसके बाद एक और समिति का गठन किया गया माधव मेनन समिति। इस समिति ने वर्ष 2007 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में कई अपराधों को परिभाषित करने के साथ-साथ पीडि़तों को अधिकार देने के मकसद से कुछ अपराधों को वर्गीकृत करते हुए चार अलग-अलग संहिताओं में बांटने का सुझाव दिया। इसके अलावा समिति ने दांडिक न्याय सुधार हेतु तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ावा देने तथा पीडि़तों को मुआवजा दिलाए जाने का सुझाव दिया। इसी प्रकार विधि आयोग भी समय-समय पर आपराधिक कानूनों में सुधार के लिए अपनी रिपोर्ट देता रहा है। लेकिन आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार सिरे नहीं चढ़ पाया है। अब सरकार के निर्णय से इस प्रणाली में व्याप्त कमियों को दूर करने की उम्मीद जगी है।
आपराधिक न्याय प्रणाली में त्वरित सुधार में पुलिस की व्यवस्था महत्वपूर्ण है। पुलिस सुधार की मांग करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों सहित कई प्रयासों के बावजूद, जमीनी वास्तविकता बहुत ज्यादा नहीं बदली है। अत्यधिक कार्यभार के अलावा पुलिस विभाग को जरूरी संसाधनों के अभाव का भी सामना करना पड़ता है। कुछ पुलिस स्टेशनों में पीने का पानी, स्वच्छ शौचालय, परिवहन, पर्याप्त कर्मचारी और नियमित खरीद के लिए धन जैसी आधारभूत सुविधाओं का भी अभाव है। दूसरी ओर पुलिस की छवि आज एक भ्रष्ट और गैर-जिम्मेदार विभाग की बन चुकी है। लोगों में यह आम धारणा बन गई है कि पुलिस प्रशासन सत्ता पक्ष द्वारा नियंत्रित होता है। आम जनता के प्रति पुलिस की जवाबदेही संदिग्ध होने के आरोप भी लगते रहे हैं।
भारत की पुलिस व्यवस्था औपनिवेशिक ढांचे पर आधारित है। चूंकि समय बदल गया है, इसलिए इस व्यवस्था में सुधार की मांग हमेशा की जाती रही है। समय-समय पर पुलिस व्यवस्था में सुधार के दावे भी किए जाते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह व्यवस्था केवल कार्यपालिका के मातहत प्रेरित और उसी के प्रति उत्तरदायी होती है। आज तक हम औपनिवेशिक पुलिस संहिता से ही शासित हैं। भारतीय संविधान में पुलिस, राज्य सूची का एक अनन्य विषय है। राज्य पुलिस के मुद्दे पर कोई भी कानून बना सकते हैं। हालांकि अधिकांश राज्य कुछ फेर-बदल के साथ पुराने भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 का ही पालन करते हैं। अत: पुलिस सुधार को गति देने के लिए पुलिस अधिनियम, 1861 को किसी ऐसे कानून द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए जो भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक स्वरूप और बदले हुए वक्त से मेल खाता हो।
इसमें कोई दो राय नहीं कि देश के विकास के लिए आर्थिक और सामाजिक विकास के साथ समय-समय पर न्याय तंत्र में अपेक्षित सुधार बहुत ही आवश्यक है। बात आपराधिक कानूनों में सुधार की करें तो यह मुख्य रूप से समाज में शांति लाने के लिए 'सुधारवादी न्याय' पर आधारित होना चाहिए। आपराधिक कानून को एक राज्य एवं उसके नागरिकों के बीच संबंधों की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति माना जाता है इसलिए भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में किसी भी संशोधन को कई सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। भारत को एक स्पष्ट नीति मसौदा तैयार करना होगा जो मौजूदा आपराधिक कानूनों में परिकल्पित किए जाने वाले परिवर्तनों की सूचना दे। इसके लिए पुलिस, अभियोजन, न्यायपालिका एवं जेल सुधार को एक साथ करने की आवश्यकता होगी।
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जागरण
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